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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--यह स्वतंत्रता 1


यह स्वतन्त्रता/घर वापसी रबीन्द्रनाथ टैगोर

1
पाठक चक्रवर्ती अपने मुहल्ले के लड़कों का नेता था। सब उसकी आज्ञा मानते थे। यदि कोई उसके विरुध्द जाता तो उस पर आफत आ जाती, सब मुहल्ले के लड़के उसको मारते थे। आखिरकार बेचारे को विवश होकर पाठक से क्षमा मांगनी पड़ती। एक बार पाठक ने एक नया खेल सोचा। नदी के किनारे एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा पड़ा था, जिसकी नौका बनाई जाने वाली थी। पाठक ने कहा- "हम सब मिलकर उस लट्ठे को लुढ़काएं, लट्टे का स्वामी हम पर क्रुध्द होगा और हम सब उसका मजाक उड़ाकर खूब हंसेंगे।" सब लड़कों ने उसका अनुमोदन किया।
जब खेल आरम्भ होने वाला था तो पाठक का छोटा भाई मक्खन बिना किसी से एक भी शब्द कहे उस लट्ठे पर बैठ गया। लड़के रुके और एक क्षण तक मौन रहे। फिर एक लड़के ने उसको धक्का दिया, परन्तु वह न उठा। यह देखकर पाठक को क्रोध आया। उसने कहा- "मक्खन, यदि तू न उठेगा तो इसका बुरा परिणाम होगा।" किन्तु मक्खन यह सुनकर और आराम से बैठ गया। अब यदि पाठक कुछ हल्का पड़ता, तो उसकी बात जाती रहती। बस, उसने आज्ञा दी कि लट्ठा लुढ़का दिया जाये।
लड़के की आज्ञा पाते ही एक-दो-तीन कहकर लट्ठे की ओर दौड़े और सबने जोर लगाकर लट्ठे को धकेल दिया। लट्ठे को फिसलता और मक्खन को गिरता देखकर लड़के बहुत प्रसन्न हुए किन्तु पाठक कुछ भयभीत हुआ। क्योंकि वह जानता था कि इसका परिणाम क्या होगा।
मक्खन पृथ्वी पर से उठा और पाठक को लातें और घूंसे मारकर घर की ओर रोता हुआ चल दिया।
पाठक को लड़कों के सामने इस अपमान से बहुत खेद हुआ। वह नदी-किनारे मुंह-हाथ धोकर बैठ गया और घास तोड़-तोड़कर चबाने लगा। इतने में एक नौका वहां पर आई जिसमें एक अधेड़ आयु वाला व्यक्ति बैठा था। उस व्यक्ति ने पाठक के समीप आकर मालूम किया- "पाठक चक्रवर्ती कहां रहता है?"
पाठक ने उपेक्षा भाव से बिना किसी ओर संकेत किए हुए कहा- "वहां," और फिर घास चबाने लगा।
उस व्यक्ति ने पूछा- "कहां?"
पाठक ने अपने पांव फैलाते हुए उपेक्षा से उत्तर दिया- "मुझे नहीं मालूम।"
इतने में उसके घर का नौकर आया और उसने उससे कहा- "पाठक, तुम्हारी मां तुम्हें बुला रही है।"
पाठक ने जाने से इन्कार किया, किन्तु नौकर चूंकि मालकिन की ओर से आया था, इस वजह से वह उसको जबर्दस्ती मारता हुआ ले गया?
पाठक जब घर आया तो उसकी मां ने क्रोध में आकर पूछा- "तूने मक्खन को फिर मारा?"
पाठक ने उत्तर दिया- "नहीं तो, तुमसे किसने कहा?"
मां ने कहा- "झूठ मत बोल, तूने मारा है।"
पाठक ने फिर उत्तर दिया- "नहीं यह बिल्कुल असत्य है, तुम मक्खन से पूछो।"
मक्खन चूंकि कह चुका था कि मुझे मारा है इसलिए उसने अपने शब्द कायम रखे और दोबारा फिर कहा- "हां-हां तुमने मारा है।"
यह सुनकर पाठक को क्रोध आया और मक्खन के समीप आकर उसे मारना आरम्भ कर दिया। उसकी मां ने उसे तुरन्त बचाया और पाठक को मारने लगी। उसने अपनी मां को धक्का दे दिया। धक्के से फिसलते हुए उसकी मां ने कहा- "अच्छा, तू अपनी मां को भी मारना चाहता है।"
ठीक उसी समय वह अधेड़ आयु का व्यक्ति घर में आया और कहने लगा- "क्या किस्सा है?"
पाठक की मां ने पीछे हटकर आने वाले को देखा और तुरन्त ही उसका क्रोध आश्चर्य में परिवर्तित हो गया। क्योंकि उसने अपने भाई को पहचाना और कहा- "क्यों दादा, तुम यहां? कैसे आये?" फिर उसने नीचे को झुकते हुए उसके चरण छुए।
उसका भाई विशम्भर उसके विवाह के पश्चात् बम्बई चला गया था, वह व्यापार करता था। अब कलकत्ता अपनी बहन से मिलने आया, क्योंकि बहन के पति की मृत्यु हो गई थी।
कुछ दिन तो बड़ी प्रसन्नता के साथ बीते। एक दिन विशम्भर ने दोनों लड़कों की पढ़ाई के विषय में पूछा।
उसकी बहन ने कहा- "पाठक हमेशा दु:ख देता रहता है और बहुत चंचल है, किन्तु मक्खन पढ़ने का बहुत इच्छुक है।"
यह सुनकर उसने कहा- "मैं पाठक को बम्बई ले जाकर पढ़ाऊंगा।"
पाठक भी चलने के लिए सहमत हो गया। मां के लिए यह बहुत हर्ष की बात थी, क्योंकि वह सर्वदा डरा करती थी कि कहीं किसी दिन पाठक मक्खन को नदी में न डूबो दे या उसे जान से न मार डाले।
पाठक प्रतिदिन मामा से पूछता था कि तुम किस दिन चलोगे। आखिर को चलने का दिन आ गया। उस रात पाठक से सोया भी न गया, सारा दिन जाने की खुशी में इधर-उधर फिरता रहा। उसने अपनी मछली पकड़ने की हत्थी, पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े और बड़ी पतंग भी मक्खन को दे दी, क्योंकि उसे जाते समय मक्खन से सहानुभूति-सी हो गई थी।

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